“शिरोमणि शहीद उधम सिंह”

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भारत माता को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने में लाखों कुर्बानियां देनी पड़ीं। देश के कोने कोने से देशभक्ति के गीतों ने भारतवासियों के अंदर देश प्रेम की लहर को जागरूक रखा और अंग्रेजों के अत्याचारों ओर दुर्व्यवहारों के विरूद्ध आवाज़ उठाने का जज़्बा भरा। जब हम पुराने इतिहास को पढ़ते हैं या कुछ शहीदों की याद में उनके स्मारक स्थलों पर रखे गए रेकार्ड से जान पाते हैं की भारत की आज़दी में कितने देश वासियों ने शहादत पाई है ओर उन शहीदों में जिसका वर्णन इस लेख में किया जा रहा है वह नाम है   “शहीद उधम सिंह ” का जिसके नमन से ही देश वासियों
का सर गर्व से उठ जाता है। लाखों बेटों को जन्म देने के बाद ही कोई माता शहीद उधम सिंह जैसे बेटे को जन्म दे पाती है और मातृभूमि भी ऐसा सपूत पाकर खुद को धन्य महसूस करती है। गुलामी की बेड़ियों को काटकर अपनी मातृभूमि को अंग्रेजों से आज़ाद करवाने वाले सभी शहीदों को हम सभी भावपूर्ण श्रदांजलि अर्पित करते हैं जिनकी वजह से आज वतन आज़ाद है और तिरंगा झंडा आसमान में शान से लहरा रहा है।
           शहीद उधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर, 1899 को कम्बोज परिवार पंजाब के सुनाम में हुआ। इनके भाग्य में अपने माता पिता का सुख नहीं था क्योंकि जब यह 2 साल के थे तो इनकी माता नारायण कोर का ओर जब 5 वर्ष की उम्र के थे तो इनके पिता टहल सिंह का स्वर्गवास हो गया। इनका पालन पोषण अमृतसर के पुतलीघर यतीमखाने में हुआ।  इनके जीवन में संघर्ष तो बाल आवस्था से ही शुरू हो गया था लेकिन इनके जीवन में  जो एक  क्रांतिकारी बदलाव आया उसका कारण था 13 अप्रेल,1919 को जलियांवाला बाग में हुआ नरसंहार जिसके वह खुद चश्मदीन गवाह थे।
           वैसाखी का दिवस था, लोग इस पर्व को मनाने के वास्ते जलियांवाला बाग में इकठा हो रहे थे और साथ ही साथ ब्रिटिश सरकार द्धारा भारत में रौलट एक्ट लागू होने के खिलाफ अमृतसर के जलियांवाला बाग में प्रदर्शनकारियों ने अपना रोष प्रकट करते हुए शांतिपूर्वक ढंग से जलूस  भी निकाला। इस जलसे में हिन्दू, मुसलमान ,सिख वा सभी धर्मों के लोग जिनमें नोजवान, बच्चे, बूढ़े ओर औरतें भी शामिल थीं। शहीद उधम सिंह अपने अन्य साथियों के साथ यतीमखाने की तरफ से प्रदर्शनकारियों को पानी पिलाने की सेवा में शामिल थे। रौलट एक्ट की विरोधता को दबाने के लिए उस वक्त के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर माइकल एडवाएर ने जर्नल डायर को हथियारबन्द सिपाहियों के साथ जलियांवाला बाग अमृतसर भेजा जहां प्रदर्शनकारी सिर्फ विरोध जताने के लिए आये थे और वह सभी निहत्थे थे। वहशी दरिन्दे जर्नल डायर नें अपने सिपाहियों को हुक्म दिया की सभी प्रदर्शनकारियों ओर वैसाखी के पर्व को मनाने आये लोगों को भून डालो। जनरल डायर के हुक्म की पालना करते हुए उसके सिपाहियों ने निहत्थे लोगों के ऊपर ताबड़ तोड़ गोलियां दागनी शुरू कर दीं जिससे तकरीबन 2000 लोगों को प्राणों से हाथ धोना पड़ा। जलियांवाला बाग का रूप बदल गया और वह रौनक वाला बाग से कत्लखाने में तब्दील हो गया। चारों तरफ चीख पुकार, खून ही खून, लाशें ही लाशें और ज़ख्मी लोग पानी के लिए छटपटा रहे थे। मोत का नँगा तांडव नृत्य ब्रिटिश साम्राज्य की क्रूरता का जीता जागता उदाहरण था। लोग सीने पर गोली खा रहे थे और भारत माता की जय ओर इन्कलाब ज़िंदाबाद के नारे लगाते जा रहे थे। शहीद उधम सिंह अपने यतीमखाने से आये हुए साथियों की मदद से जख्मी लोगों की सेवा में जुटे हुए थे, उनको पानी पिलाने व उनके ज़ख्मों पर दवा लगाने का काम कर रहे थे। उनकी आंखों के सामने निर्दोष ओर निहत्थे लोगों की निर्मम हत्या ने एक यतीमखाने में पले वा शिक्षित बच्चे को अंदर से  झिंझकोर के रख दिया और तब मन ही मन इस यतीम बच्चे शहीद उधम सिंह ने ये प्रण ले लिया की वह इन अंग्रेज़ हत्यारों से निर्दोष लोगों की मौत का बदला ले कर रहेगा और उसने अपने जीवन का रास्ता अंग्रेजों से निर्दोष लोगों की हत्या का बदला लेना ही चुन लिया।
        मैट्रिक परीक्षा पास करने के पष्चात शहीद उधम सिंह ने यतीमखाने से प्रस्थान किया क्योंकि वह जानता था कि यहां रह कर वह अंग्रेजों से जलियांवाला बाग के हत्याकांड के दोषियों से बदला नहीं ले सकेगा और एक ठेकेदार की मदद से वह अमरीका जा पहुंचा। वहां वह गद्दर पार्टी के सम्पर्क में आया और एक अमरीकी महिला की मदद से उसने गद्दर पार्टी का साहित्य और कुछ हथियार भारत में लाने की कोशिश की लेकिन वह पकड़ा गया और उसे जेल हो गई। जेल से रिहा होने के बाद भी उसके अंदर बदले की आग कभी बुझी नहीं।
शहीद उधम सिंह ने कितने देशों की यात्रा की ओर जैसा भी काम मिला किया। उसके जीवन को कितने ही शहीदों की कुर्बानियों ने प्रभावित किया जिनमें शहीद भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव ओर शहीद चेन्द्रशेखर आज़ाद विशेष हैं। शहीद उधम सिंह की मुलाकात नेताजी सुभाषचंद्र बोस से जर्मनी में हुई और नेताजी ने ही उनका मार्गदर्शन उनके प्रण को पूरा करने के लिए किया। आखिरकार शहीद उधम सिंह को वो मौका भी 1940 में  मिल गया जिस का वह 21साल बेसब्री से  इंतज़ार कर रहे थे।
          13 मार्च, 1940 का दिन था जब अंग्रेजों द्वारा कैकस्टन हाल लन्दन में एक मीटिंग बुलाई गई जिसमें अफगानिस्तान में बगावत ओर पंजाब के दंगों पर चर्चा रखी गई थी। इस मीटिंग में माइकल एडवाएर जो कि जलियांवाला बाग के मुख्य आरोपियों में से थे हिस्सा ले रहे थे। दूसरे आरोपी जनरल डायर का निधन लकवाग्रस्त होने से पहले ही हो चुका था। खूनी दरिन्दे माइकल एडवाएर के कहने पर जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल,1919 को नरसंहार हुआ था और उस आग के सेक में तपते श्रोमणि शहीद उधम सिंह को 21 वर्षों तक तपस्या करनी पड़ी थी तो ऐसे अवसर को वह किसी भो कीमत पर हाथ से गंवाना नहीं चाहते थे। उन्होंने नीले रंग का सूट पहना, लाल रंग की टाई , आकर्षित   मॅहगी टोपी सर पर रखकर ओर अपने कोट के अंदर भरा पिस्तौल ओर साथ में अन्य गोलियों के साथ कैकस्टन हाल  की मीटिंग में शामिल होने में सफलता पाई। माइकल एडवाएर नें भारत की आज़ादी के दीवानों के लिए अपने भाषण में अपशब्दों का प्रयोग करते हुए कहा कि भारतीयों को अभी 100 वर्षों तक  ओर गुलाम बनाये रखने की ज़रूरत है। हिन्दुस्तान के विरुद्ध बोले गए शब्द सुनकर शहीद उधम सिंह का  खून खौल उठा ओर जैसे ही मीटिंग खत्म हुई और सब जाने लगे तो उसने माइकल एडवाएर को अपने सामने पाकर अपनी पिस्तौल की 2 गोलियां उस दरिन्दे के सीने में दाग दीं जिससे उसकी वहीं मौत हो गई। शहीद उधम सिंह भागा नहीं ओर ना ही उसके चेहरे पर कोई शिकन आई। उसने बड़े गर्व से अपना जुर्म कबूल किया और कहा की आज 21 साल के बाद ही सही उसने जलियांवाला बाग में निर्दोषों की हत्या का बदला ले लिया है। हाल में खड़े हो कर उसने भारत माता की जय के नारे लगाए और वहां से टस से मस नहीं हुए।  हिन्दोस्तान के अंदर हमारे कई आज़ादी की जंग लड़ने वाले नेताओं ने देश के दुश्मन हत्यारे माइकल एडवाएर को मौत के घाट उतार जाने की प्रशंसा की वहीं कई नेता जिनमें गांधी और नेहरू जैसे नेताओं ने इस घटना की निंदा की । शहीद उधम सिंह पर केस चला और उनको 13 जून, 1940 को फांसी की सज़ा दी गयी। शहीद उधम सिंह ने 31 जुलाई, 1940 को पेटुनवे जेल में फांसी के फंदे को चूमकर अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए, मुस्कराते हुए और देश का गौरव बढ़ाते हुए अपने प्राणों को न्योछावर कर दिया। उनकी ये कुर्बानी सवर्ण अक्षरों में लिखी जाएगी। 34 सालों के बाद पंजाब सरकार केंद्रीय सरकार के सहयोग से 1974 में शहीद उधम सिंह की अस्थियों को भारत में ले कर आई और उनका संस्कार उनके जन्म स्थान सुनाम में 31 जुलाई, 1974 को पूरे राष्ट्रीय सम्मान के साथ किया गया।
       आज देश को ज़रूरत है शिरोमणि शहीद उधम सिंह जैसे नौजवानों की जो देश भक्ति की ऐसी मिसाल है जो ना कभी किसीमें  देखी गई ओर ना ही उसकी तुलना किसी से की जा सकती है। आज की नवयुवक पीढ़ी को ऐसे शहीदों से बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है। शहीद उधम सिंह ने देश प्रेम की मिशाल को दिल में जलाए रखा बिना कोई व्यक्तिगत लाभ के। धन्य है वो कम्बोज परिवार और धन्य है उनकी माता नारायणी देवी जिन्होंने हिन्दोस्तान को एक ऐसा रत्न दिया जिसका रोम रोम मातृभूमि पर कुर्बान होने के लिए बना था। ऐसे शहीदों के  बलिदान ओर सीमा क्षेत्र में भारतीय सैनिकों की चौकसी के कारण ही आज वतन आज़ाद है। लेकिन आज़ादी पाने के लिए लाखों कुर्बानियां देनी पड़ती हैं और शहीदों की शहादत का सम्मान करना पड़ता है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि अब जब देश आजाद है तो कुछ गुमराह नवयुवक किस आज़ादी की बात करते हैं और वह अपने ही देश में अपने देश के विरुद नारेबाजी लगाने वालों को, अपने राष्ट्रीय ध्वज का अपमान करने वालों और उनका समर्थन करने वालों को कैसे देश भक्तों का दर्जा दे सकते हैं। हमारे देश का दुर्भाग्य है कि यहां बोलने के अधिकार का कुछ राजकीय नेता गलत उपयोग करते हैं और नवयुवक पीढ़ी को अपनी राजनैतिक महत्वकांक्षों को प्राप्त करने के लिए भर्मित करते हैं। देश भक्ति क्या होती है नवयुवकों को ऐसे नेताओं से जिनके ऊपर कई संगीन जुर्मों के आरोप हैं, से सीखने की ज़रूरत नहीं अपितु देश के इतिहास को पढ़ने की आवश्यकता है और शिरोमणि शहीद उधम सिंह जैसे मातृभूमि पर मर मिटने वाले देश भक्तों की राह पर चलने की ज़रूरत है। किसी ने ठीक ही कहा है
     “अगर यह प्राण मेरे देश की ख़ातिर न जाएं
     तो इस हस्ती के तख्ते से मिटे नामोंनिशां मेरा।”
बृज किशोर भाटिया, चंडीगढ़

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