“पिंजरे का पंछी”

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सोने के पिंजरे में देख कर पंछी उदास
मिलने आए पंछी को बात न आई रास
कहा उसने बिना परिश्रम के तू सब पाए
फिर किस बात के बैठा तूँ मूंह लटकाए
अन्य परिंदे दूर दूर उड़ान भरने जाते
मेहनत करते, मुश्किल से दाना लाते
मिले ऐसा जीवन तो मैं खुश हो जाऊं
मुफ्त का खाऊं ओर आराम फरमाऊं
पिंजरे के पंछी ने सुना तब आंसू भर आए
बोला आज़ादी क्या है तूं ये जान ना पाए
आज़ाद परिंदा ही खुली हवा में उड़ पाए
सोने के पिंजरे का पंछी बस कैदी कहलाए
पिंजरे का पंछी  उसे अपनी दास्तान सुनाए
रोज़ सुबह पक्षियों संग वो दाना चुगने जाए
दुनिया की चकाचोंध देख कर वो चकराए
घरों में रहते पक्षियों की देख ठाठ ललचाए
आकाश में उड़ते मन में  आया ये विचार
वृक्षों  पर घोंसले बना के रहना है बेकार
शहरों में कई पक्षी लोगों के घर में रहते
सुंदर पिंजरों में रहते अच्छा खाना खाते
मृग तृष्णा में फंसा मैं यहां चला आया
मेरा स्वामी मेरे लिए सुंदर पिंजरा लाया
कुछ दिन मैंने खुश हो कर पिंजरे में काटे
अब मैं समझा मेरे जीवन में बिछे हैं कांटे
सुन ओ आज़ाद परिंदे लालच में ना आना
मुफ्त  पाने से अच्छा मेहनत कर में खाना
अपने मनोरंजन के लिए लोग पिंजरे बनाएं
मेरे जैसे लालची पंछी पिंजरे में फंस जाएं
आज कल के नेता भी कई लालच दिखलाएं
वोटों की खातिर ये सब जनता को भटकाएँ
मेरी तरह मुफ्त पाने को लोग लालच में आते
पंछी की तरह नेताओं के पिंजरे में फंस जाते
-बृज किशोर भाटिया,चंडीगढ़

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