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क्या दे रहे हो?

क्या दे रहे हो? सुनकर अधूरा सा लगता है ना? लेकिन यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है। चलिए बताते हैं आपको कैसे।

हाल ही में एक ऐसा वाक्या हुआ कि किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक व्यक्ति ने आकर पूछा कि यहां क्या है। मतलब किस चीज़ की प्रेस कॉन्फ्रेंस हो रही है। उसके बाद उसने दूसरा सवाल यह किया कि अच्छा फिर क्या दे रहे हो? बदले में जैसे ही उस व्यक्ति को उत्तर मिला कि कुछ नहीं जो देना है या नहीं देना वो तो क्लाइंट देखेगा, वह व्यक्ति वहां से ऐसे नौ दो ग्यारह हुआ कि ढूढ़ने पर भी नहीं मिला।

अब मज़े कि बात यह है कि जिसने यह पूछा कि क्या दे रहे हो वो था तो पत्रकार लेकिन जिससे पूछा उसको यह मालूम चलने से पहले कि वह कौन है वह पत्रकार ग़ायब ही हो गया। अब ख़बर करनी है या नहीं करनी वह इस बात पर निर्भर होने लगा है कि आप क्या दे रहे हो? यानी कि क्या गिफ़्ट देने वाले हो ख़बर के बदले में।

यह गिफ़्ट कल्चर इतना ज्यादा हो गया है कि यदि किसी ख़बर के बदले गिफ़्ट न दिया जाए तो आजकल ख़बर कैंसिल ही कर दी जाती है। चाहे फ़िर वह कोई आम जनता के फायदे की ही ख़बर क्यों न हो।

यह वाक्या सोचने पर मजबूर करता है कि अपने ही काम के लिए गिफ़्ट मांगना और न मिलने पर काम ही न करना… अगर ऐसे कोई डॉक्टर करने लग जाए तो हमें इलाज़ मिलेगा? नहीं। हर प्रोफेशन में कमाई के सही जरिए होते है। उसके बाद भी अगर हम अपने एथिक्स भूल कर यह सब करते रहेंगे तो क्या ही फ्यूचर होगा हमारे प्रोफेशन का।

थोड़े समय पहले किसी व्यक्ति से मुलाकात हुई… बात होने पर उन्होंने कहा कि आजकल मीडिया का बुरा हाल हो गया है। हर पत्रकार गिफ़्ट और पैसे मांगने लगा है और न देने पर नेगेटिव न्यूज़ लगा देते हैं। सुनकर बहुत बुरा लगा कि किस प्रकार आम जनता के सामने मीडिया की इमेज ख़राब हो गई है।

यह इमेज 1 दिन में ठीक नहीं होगी और न ही किसी एक के कुछ करने से होगी।