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“सपना”

उठा दिया तुमने क्यूँ आके मुझे,
गहरी नींद में सोया हुआ था मैं।
जो देखा नही खुली आँखों से,
बन्द आंखों से देख रहा था मैं।
किनारे पर खड़ा था मैं नदी के ,
चल रहा तूफान बड़े जोरों से ।
आसमान से बरस रहा था जल,
बादल फटने को थे किसी पल।
बह रही थी सरिता पूरे वेग से,
बिजली कड़के काले मेघ से।
पैर फिसला मैं नदी में जा गिरा,
पानी से घड़ियाल आ निकला।
मैं तो खा रहा था गोते पानी में,
पीछे  मगर पड़ा मुझे दबाने में।
कहीं नहीं आसार बचने के थे,
मददगार कहीं नहीं दिखते थे।
घड़ियाल ने जैसे मुझे आ दबाया,
तुमने आके मुझे नींद से जगाया।
तू ना उठाती तो वो मुझे खा गया होता,
घड़ियाल के पेट में मैं समा गया होता।
बृज किशोर भाटिया।
चंडीगढ़।