“अम्बियां “

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      सोचा शोर शराबे का माहौल छोड़
      चलो कहीं आज सकून ढूंढने  चलें
      छोड़ आज दुनिया की भीड़ भाड़
      चलो कहीं दूर खुद से मिलने चलें
               सुनहले पलों को  कर याद
               बचपन में डुबकी लगाकर
               ढूंढें साथी बचपन के अपने
               वो ना जाने कहाँ छुपे जाकर
         वीरान सा लगता है ये बाग कितना
         जो गूंजा करता था किलकारियों से
         रोज़ खेलते ओर  गेंद गुम हो जाती
         जा ढूंढा करते थे  उसे क्यारियों से
              हरिया माली की कुटिया आज वहीं है
              आम का  बड़ा पेड़ भी आज वहीं है
              कच्ची अम्बियां देख कर  याद आया
              तोड़ अम्बियां माली को खूब भगाया
ठूंस  जेब में अम्बियां हम भाग जाते
हरिया  चिल्लाता पर हाथ ना आते
आज ना अम्बियां तोड़ने कोई आता
नां ही लठ लिए हरिया नज़र आता
             कुटिया से खांसने की आवाज़ आई
             सोचा चलो देखूँ अंदर कौन है भाई
             बजुर्ग लेटा था दरी जमीन पे बिछाई
             झुर्रियां चेहरे पर ओर दाड़ी बड़ आई
पास ही घड़ा था मैंने पानी ले उसे पिलाया
ज्वर से उसका शरीर उस वक्त तप तपाया
कोई पास नही था मैंने डॉक्टर को दिखाया
आंखें भर आईं जो उसने हरिया नाम बताया
             हरिया ने भीगी आंखों से आभार जताया
             उसे गले लगा मैंने खुद का परिचय कराया
             जेब में  पैसे थे जितने हरिया को दे आया
             बचपन की स्मृतियां ले वापिस घर आया
-बृज किशोर भाटिया,चंडीगढ़

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